एक बुढिया की कई कठपुतलियों में जान है।
यह तमाशा देख कर शायर बहुत हैरान है।
कल नुमाइश मे मिला वो चीथड़े पहने हुए।
मैने पूछ नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है।
दुष्यंत कुमार के यह शब्द उनकी लेखनी की नोक को ही बयाँ नही करती बल्कि यह भी दर्शाती है कि वैचारिकता के धरातल पर वह कितने तटस्थ थे। एक ऐसे समय में, जब गज़ल पर सिर्फ उर्दू भाषा का ही अधिकार समझा जाता था और उसके लिए भी विषय सिर्फ प्रेम और विरह ही होता था तब उन्होने यह बताया कि किसी शैली पर किसी भाषा का एकाधिकार नहीं कहा जा सकता। उन्होंने हिन्दी मे गज़लें लिख कर न केवल एक नए गज़ल के एक युग की नींव रखी बल्कि अपनी गज़लों मे देश, समाज, तत्कालीन परिस्थितियां आदि जैसे विविध विषयो को स्थान दिया। भ्रष्टाचार का दंश उस समय अपने चरम पर पहुंचने की तैयारी मे था तभी उन्हों ने कहा था कि
अब यहां पर नज़र आती नहीं कोई दरार।
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तेहार।
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीक-ए-ज़ुर्म हैं,
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार।
व्यस्था के विरुद्ध रोष अभिव्यक्ति और उस तत्कालीन परिस्थितियों का चित्रण उनकी रचनाओं का मुख्य आधार रहा है। परंतु उन्होंने कभी भी जगृति के स्वर का साथ नही छोडा। इसीलिए उनकी ये पंक्तियां आज भी कई रचनाकारों का मर्गदर्शन करती हैं।
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये।
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।
सिर्फ हंगामा खडा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये।
Sunday, September 30, 2007
हिंदी गज़ल के पुरोधा-दुष्यंत कुमार
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1 comment:
भाई हिंदी गजल के पुरोधा निराला क्यों नहीं हैं। दुष्यंत अच्छे गजलकार हैं बेशक पर निराला का हक उन्हें तो न दें।
किनारा वो हमसे किए जा रहे हैं
दिखाने को दर्शन दिए जा रहे हैं।
जैसी गजले निराला ने काफी पहले लिखी थीं।
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