Monday, October 1, 2007

विलयन

आज कर रहा है मेरा मन।
उठूं और छू लूं मैं गगन।
पहुंचूं उस मंज़िल पर,
हो आकाश-अवनी का जहां मिलन।
न अधर खुलें न ही जिह्वा,
नयनों से बातें करें नयन।
हो जहां जीव स्वच्छंद विचरता,
न हो कोई लौकिक बन्धन।
और हो जिस बिन्दु पर,
आत्मा का परम में विलयन।

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© Vikas Parihar | vikas