ज़िन्दगी से मेरा करीब का नाता है।
अब भी तेरा हंसता चेहरा मुझे याद आता है।
है झनक तेरी बोली में ऐसी,
जैसे कोई साज़ गुनगुनाता है।
गम तो हैं नैमतें खुदाई की,
इनको क्यों यह जहाँ भुलाता है।
कौन सुनता है दुःख को गैरों के,
कौन अपनों को आज़माता है।
यह तो मिलते ही हैं मुहब्बत में,
ज़ख्म तू क्यों भला छिपाता है।
उसका अल्हड़ हसीन सा चेहरा,
अब भी हमें देख मुस्कुराता है।
मेरे गम की उदास बस्ती में,
मौत का भी दिल पसीज जाता है।
Saturday, October 20, 2007
ज़िन्दगी से मेरा करीब का नाता है
लेखक:- विकास परिहार at 00:41
श्रेणी:- गीत एवं गज़ल
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1 comment:
बेहतरीन, विकास. बढ़िया लिखा जा रहा है.
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