Thursday, February 7, 2008

काश..........

काश गर मैं जान पाता,
मुस्कान के पीछे छिपी तेरी व्यथा को,
तो तोड़ देता हर एक बंधन हर प्रथा को,
अंतर्हृदय मैं घाव जो तुमने छिपाए,
आंख में आंसू लिए तुम मुस्कुराए,
मैं रोक देता समय की अविरत गति को,
अप्ने प्रेम के आगे झुकाता संसृति को,
तेरे आंसुओं को सीप के मोती बनाता,
तेरे जीवन को खुशियों से सजाता,
काश गर मैं जान जाता।

3 comments:

Anonymous said...

bahut sundar bhav,kash sach hum kisi ki vyatha jan sakte aur ansun poch sakte,kitna achha hota.

अमिताभ मीत said...

काश !
Why does this thought come almost always in retrospect ? काश गर मैं जान पाता .....

विजय तिवारी " किसलय " said...

विकास भाई,
आपका स्वसंवाद देखा . अच्छा लगा .'कविता' पसंद आई
संस्कारधानी में आप जैसे सक्रिय य्वाक्तित्व की वाकई जरूरत है .
हम उम्मीद करते हैं की आप साहित्यिक गतिविधियों में हमारे साथ सदैव रहेंगे.
आपका विजय तिवारी
"किसलय " जबलपुर

© Vikas Parihar | vikas