होटल के प्रांगण में
चल रहा था जश्न
झूम रहे थे लोग
लिये डांडिया की स्टिक हांथों में,
गहरी लिपस्टिक लगे हुए होठों पर
फैली थी मुस्कान।
डस्टबिन में पड़ी हुई थीं
बहुत सारी आधी खाई हुई प्लेटें,
यही होती है समृद्धि की पहचान।
लोग खुश थे,
निश्चिंत थे।
मगर होटल के बाहर
बैठा है एक वृद्ध
इस आस मे
कि पड़ेगी किसी
समृद्ध की नज़र
इस पर
और वह
डालेगा कुछ चिल्लर
इसके कटोरे में।
जिस से वह खरीदेगा कुछ आटा
और भरेगा पेट अपनी बीवी
और तीन बच्चों का।
नहीं तो आज फिर होगा उपवास
नवरात्री के पर्व पर
माता का नाम लेकर।
Friday, October 3, 2008
नवरात्री का विरोधाभास
लेखक:- विकास परिहार at 23:13
श्रेणी:- कवितायें, नया प्रयोग
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4 comments:
hai kadwi par yahi hai aaj ki hakikiat...jhoothi khushiyon aur dikhawe ke peechhe bhagte log, bhagti duniya....sach se koso door ya fir dekh kar bhi andekha kar dena sach ko...jaise jane kitne hi log is budhe ke paas se gujare honge...aise log jinke liye shayad 2 rupiye koi mahatwa nahi rakhte par kaun dekhta hai us nissahay budhe ko??????
विदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर, मेरे एकाकी मन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर! वह केसरी दुकुल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर...Rj Gaurav{DD
hello friends, i am sorry for that.Vikas has expired...Vikas Parihaar{Rj DD, Jabalpur}....प्यारे दोस्त को अश्रुपूरित श्रद्धासुमन.
बहुत बुरी खबर है ... विकास का जाना.मेरा उनसे कोई परिचय नहीं रहा.. पर स्वसंवाद पर जाना हुआ था और वहां लिखी पंक्ति "i resist therefore I exist" ने ध्यान खींचा ...और इस ब्लॉग के लेखन ने भी.तब मैं नहीं जानती थी कि विकास नही रहे .अब ब्लॉग खोलना और यह ख़याल आना कि अब इस ब्लॉग में आगे कुछ नही लिखा जायेगा ..कभी भी ..पीड़ादायक है.जब मित्र जीवित होते हैं उनके जाने की कल्पना तक नहीं हो पाती,लेकिन यह सच है कि जीवन है और मृत्यु भी है ही .श्रद्धांजलि विकास के लिए जिन्हें ज़िंदगी अगर मौके बख्शती तो वे दुनिया को कितने तोहफेदेते.
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