एक प्रश्नचिन्ह चिर परिचित सा
जो दे दिया था कभी बतों बातों में यूं ही तुमने,
और खोजते हुये जिसका उत्तर
मैं चला आया हुं इतनी दूर, कि
अब लौटना मुश्किल लगता है।
परन्तु इस बिन्दु पर मैं बहुत थक चुका हूं
और महसूस करना चाहता हुं
तुम्हारी उन्गलियों का स्पर्श अपने बालों में
और देखना चाहता हूं तेरी आँखों में
अपना प्रेम।
पर यह क्या? मुझे तो दिखायी देता है
बस एक शून्य सा तेरे चेहरे पर, और
एक प्रश्नचिन्ह चिर परिचित सा।
Monday, September 10, 2007
प्रश्नचिन्ह
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