Monday, September 10, 2007

प्रश्नचिन्ह

एक प्रश्नचिन्ह चिर परिचित सा
जो दे दिया था कभी बतों बातों में यूं ही तुमने,
और खोजते हुये जिसका उत्तर
मैं चला आया हुं इतनी दूर, कि
अब लौटना मुश्किल लगता है।
परन्तु इस बिन्दु पर मैं बहुत थक चुका हूं
और महसूस करना चाहता हुं
तुम्हारी उन्गलियों का स्पर्श अपने बालों में
और देखना चाहता हूं तेरी आँखों में
अपना प्रेम।
पर यह क्या? मुझे तो दिखायी देता है
बस एक शून्य सा तेरे चेहरे पर, और
एक प्रश्नचिन्ह चिर परिचित सा।

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© Vikas Parihar | vikas