आप जलिये या कि ये दुनिया जलाइये।
वक्त कह रहा है कि कुछ कर दिखाइये।
दरिया-ए-खूँ बहा के क्या हासिल हुआ किसी को,
हर इक दिल में प्यार की गंगा बहाइये।
सूखे हुये पत्तों को उङाया तो फ़िर उङाया क्या,
शाख-ए-ज़हन से ख्याल का पत्ता उङाइये।
झूमने लगेंगे फ़िर से ये बुतकदों के बुत,
नग़्मा-ए-मोहब्बत ज़रा इनको सुनाइये।
मझधार में बहते हैं सभी भीङ में शामिल होकर,
पहचान अपनी कुछ अलग कर कर बनाइये।
ग़र खुद को लगे चोट तो होती है कसक सबको,
एहसास दर्द-ए-ग़ैर का दिल में जगाइये।
सारे जहाँ में आयेंगी बस नफ़रतें नज़र,
आँखों से अपनी प्यार का पर्दा उठाइये।
गंगा में नहाने से ग़र धुलते हैं सारे पाप,
तो सौ कत्ल कीजे और फ़िर गंगा नहाइये।
Saturday, September 22, 2007
गंगा-स्नान
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