Friday, September 28, 2007

उठा आदमी - गिरा आदमी

उठा आदमी है गिरा आदमी।
मजबूरियों से घिरा आदमी।
अबके पतझड़ ने कैसा गजब ढा दिया,
पेड़ से पत्तों जैसा खिरा आदमी।
अपने ही घर को जला जो रहा,
कौन है, कैसा ये सरफिरा आदमी।
कभी तो तमन्ना है जीने की यह,
कभी मौत का मश्विरा आदमी।
जानवर, जानवर को नहीं मारता,
आदमी को क्यों मारे निरा आदमी।

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© Vikas Parihar | vikas