जा रहा धंसता पतन के गर्त में संसार।
भ्रष्ट और कलुषित हुआ है मन तथा आचार।
बसा है हर इक दिशा में घोर अंधकार।
खेतों में अब उगने लगे हैं बारूद और हथियार।
हर इक नुक्कड़ पर लगा है मौत का अंबार।
लुप्त होता जा रहा है जीवन का आधार।
झूठ हर पल कर रहा है सत्य का संहार।
हो चुके हैं बंद देखो न्याय के सब द्वार।
प्रेम के बदले यहां पर होता अत्याचार।
आत्मा की तह तलक बसा हुआ है व्याभिचार।
ज़िंदगी पर है यहां पर मौत का अधिकार।
सुधरने के अब नहीं आते नज़र आसार।
जा रहा धंसता पतन के गर्त में संसार।
Thursday, September 27, 2007
पतन के गर्त में संसार
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment