Sunday, September 30, 2007

आदमी

खून से लथपथ यहां पर है सना हर आदमी।
आत्माएं मर चुकी हैं सिर्फ पत्थर आदमी।
न तो दिल में प्रेम है और ने सौहाद्र है,
आत्मा से और तन से कितना ज़र्ज़र आदमी।
अत्याचारी है कहीं पर, कहीं पर मजबूर है,
कहीं जीवन की खुशी कहीं मौत का डर आदमी।
न तो कोई दिशा ही है और न कोई लक्ष्य है,
यूं ही बहता जा रहा है जैसे निर्झर आदमी।
किसी को भी दुःख नहीं है अपने जीवन के दुःखों से,
औरों के सुख देख कर के है दुःखी हर आदमी।
कल तलक अभिप्राय था जो राष्ट्र के अभिमान का,
आज बन कर रह गया है सिर्फ अक्षर आदमी।

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© Vikas Parihar | vikas