Friday, September 14, 2007

मौन अभिव्यक्ति

जाने क्यों फ़िर मौन हूं में?
हर कोई ओढ़े हुये है झूठ का एक आवरण सा।
दिक दिशा में दीख पङ्ता छला हुआ वातावरण सा।
चिर तिमिर में बढ़ रहे हैं जैसे कि मेरे चरण।
हर घङी यूं लग रहा है ज़िंदगी ज्यों हो मरण।
सभी अपनी राय देते क्या हूं मैं और कौन हूं मैं।
जाने क्यों फ़िर मौन हूं मैं?
पत्नि का बलात्कार करता रात को उसका पति ही।
सभी करने में लगे हैं हर घङी अपनी क्षति ही।
चीर फ़टते द्रोपदी के, रोज़ सीत हरण होते।
सदा पाण्डव सर झुकाते और रघुकुल वीर रोते।
ना तो मैं हूं पितामह ही और ना ही द्रोण हूं मैं।
जाने क्यों फ़िर मौन हूं मैं?

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© Vikas Parihar | vikas