जब कि दुनिया व्यस्त है नवकाल के निर्माण में।
हम अभि भी खोजते भगवान को पाषाण में।
संगणक का युग है यह, है सदी इक्कीसवीं,
फर्क अब भी खोजते हम राम में रहमान में।
ईर्ष्या और द्वेष से भरपूर हर इक क्षेत्र है,
आदमी अब तक बदल पाया नहीं इंसान में।
मुस्करा कर जा रहे हो आज जो तुम इस जगह से,
आओगे इक दिन सुनो तुम भी इसी शमशान में।
Tuesday, October 9, 2007
जब कि दुनिया
लेखक:- विकास परिहार at 23:14
श्रेणी:- गीत एवं गज़ल
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1 comment:
जीवन का रहस्य तो पाषाण में ही मिलेगा…
लेकिन कविता की उत्कृष्टता बहुत सारे द्वार
को बंद कर देती है…।
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