जो मुझसे दूर ही जाना है तो फिर पास बुलाती क्यों हो।
गर झुकाना ही है नज़रों को तो नज़रों को मिलाती क्यों हो।
छिपाकर के जो किया हो वो हर काम गलत है,
अगर है पाक मुहब्बत तो ज़माने से छिपाती क्यों हो।
अगर है प्यार मुझसे तो ज़माने से न डरो तुम,
और गर डर है ज़माने का तो फिर प्यार जताती क्यों हो।
माना हर किसी को खुश रखना आसाँ नही होता,
पर अगर इतना ही मुश्किल है निभाना तो निभाती क्यों हो।
तुम्हें मालूम है दिल का और ख्वाबों का नाता पुराना है,
जो न हो सके पूरा कभी वो ख्वाब दिखाती क्यों हो।
बता देते हैं तेरी रात का आलम तेरे अश्कों के निशाँ,
बेवजह अश्कों को अपने चेहरे पर सुखाती क्यों हो।
जो टूट जाएं वक़्त की बस एक चोट से,
ऐ सनम रेत के ऐसे घरोंदों को बनाती क्यों हो।
Sunday, October 14, 2007
निभाती क्यों हो
लेखक:- विकास परिहार at 20:33
श्रेणी:- गीत एवं गज़ल
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