न जाने क्यों पीता हूँ मैं?
बाद पीने के दुखाता बोल कर सच दिल सभी का।
ऐसे जीवन से तो अच्छा था कि मर जाता कभी का।
देखने पर हूं बहुत खुश, अन्दर से गम कोई है खाता।
कोई मुझसे हाल पूछे क्या बताता क्या छिपाता।
बाहर से हूँ भरा हुआ अंतर्मन में बहुत रीता हूँ मैं।
न जाने क्यों पीता हूँ मैं?
होंठों पर रहता तबस्सुम आँखों में रहता है पानी।
टूटे अरमाँ, टूटा दिल बस है मेरी इतनी कहानी।
गम के हर इक पल में खुशियाँ ढूंढता जाता हूं मैं।
दर्द बढ़ जाता है जब कविता कोई गाता हूं मैं।
मार कर के अपने मन को ऐसे ही जीता हूं मैं।
न जाने क्यों पीत हूँ मैं?
प्रेम तेरा चुभ रहा मेरे हृदय में शूल बन कर।
मजबूरियाँ मेरी आगे आतीं मेरे दुःखों का मूल बन कर।
टूटता जाता हूं हर पल अपनी हर इक आह पर मैं।
इतना आगे बढ गया हूं ज़िंदगी की राह पर मैं।
किस तरह से लौट आऊं कि समय बीता हूं मैं।
न जाने क्यों पीता हूँ
Thursday, October 11, 2007
न जाने क्यों पीत हूँ मैं
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2 comments:
परेशान न हों कि क्यूँ पीता हूँ मैं-
हर पंक्ति अपने आप में पीने का सालिड कारण है, जस्टिफाईड है पीना. खैंचे रहो-एक दो जाम और लगाओ, कहाँ पोस्ट के चक्कर में पड़ गये. :)
बढ़िया लिखा है.
हमको तो पसंद नहीं फिर भी देखो इस पोस्ट पर कि क्यूँ पीता हूँ मैं:
http://udantashtari.blogspot.com/2007/06/blog-post_12.html
कहर है भाई कहर…
बेहद संजीदा…
शानदार…
इतनी सहजता से भावों को परखा है और उन्नत रुप में प्रस्तुति लाजबाव है…।
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