Tuesday, April 8, 2008

रात

मेंढक की टर्र-टर्र,
झींगुर के स्वर,
भयभीत मन कंपित कर,
तन पर चुभते हवाओं के शर,
अंतर उद्वेलित बाहर नीरव,
मन में होते आतंकित अनुभव,
मंथर गति से चलती वात;
यही है रात।

2 comments:

अमिताभ मीत said...

अच्छा है.

Girish Billore Mukul said...

और यही सब चलता है सदा से
तुम चाहो तो उठा के कुदाल
खोद डालो विचारों की दुनिया
मन को होगें आतंकित अनुभव,
मंथर गति से चलती वात;
यही है रात।

© Vikas Parihar | vikas