मेंढक की टर्र-टर्र,
झींगुर के स्वर,
भयभीत मन कंपित कर,
तन पर चुभते हवाओं के शर,
अंतर उद्वेलित बाहर नीरव,
मन में होते आतंकित अनुभव,
मंथर गति से चलती वात;
यही है रात।
Tuesday, April 8, 2008
रात
लेखक:- विकास परिहार at 23:21
श्रेणी:- क्षणिकाएं एवं अशआर
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
अच्छा है.
और यही सब चलता है सदा से
तुम चाहो तो उठा के कुदाल
खोद डालो विचारों की दुनिया
मन को होगें आतंकित अनुभव,
मंथर गति से चलती वात;
यही है रात।
Post a Comment