(1)
अब
मैं इस असमंजस मैं हूं
कि इसे मौत का तांडव कहूं
या
मौत का डिस्को?
तांडव तो वो होता है
जिसमें अधर्मी मरते हैं
और जिसे शिव करते हैं।
पर आज कल तो
ये डिस्को हो गया है
जिसे अधर्मी करते हैं और
इसमे शिव मरते हैं।
(2)
सन 1947 से पहले
मैं हर बार वीरगति को प्राप्त होता था
पर उसके बाद
मैं मरा हूं बार-बार
लगातार।
रक्त से सना हुआ है मेरा शरीर,
क्षत-विक्षत हैं मेरे अंग प्रत्यंग,
भावना शून्य हो गया है हृदय,
क्या एक उम्र के बाद
हर मां को यही देखना पड़ता है?
(3)
हम लोग बहुत माहिर हैं
दौड़ाने में कागज़ी घोड़े।
हमेशा रहते हैं आगे हम आंकड़ों मे।
रोज़ होने वाली लाखों मौतों में,
नहीं होती हमारे यहां एक भी मौत
भूख से ,
भले ही सोते हैं लाखों लोग भूखे
हर रोज़।
Saturday, May 17, 2008
मौत क तांडव
लेखक:- विकास परिहार at 02:21
श्रेणी:- नया प्रयोग
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2 comments:
आज के समाज पर, आज की व्यवस्था पर ,आज के झूठ-फरेब पर इस से बेहतर कटाक्ष मुझे काफी अरसे तो दिखा नहीं। एक दम सही कह रहे हैं ....मैं खुद हैरान-परेशान सा हूं कि ज़िंदगी मौत न बन जाये, संभालो यारो............
बहुत ही उम्दा कटाक्ष-वाकई जबरदस्त. बधाई-ऐसे ही लिखते रहो, विकास.
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