जब भी देखता हूं
बच्चों को रोते हुए
भूखों को सोते हुए
पाप को होते हुए
आंखें भर आती हैं।
जब भी देखता हूं
सच का दम घुटते हुए
अस्मिता को लुटते हुए
गिद्धों को जुटते हुए
आंखें भर आती हैं।
जब भी देखता हूं
सेक्स के व्यापार को
झूठ के प्रचार को
दरिंदगी, अत्याचार को
आंखें भर आती हैं।
जब भी देखता हूं
बिके हुए समाज को
अंधों के राज को
कल को और आज को
आंखें भर आती हैं।
Monday, May 19, 2008
आंखें भर आती हैं
लेखक:- विकास परिहार at 02:42
श्रेणी:- नया प्रयोग
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3 comments:
उम्दा!!
ऑंखे भर आती है गनीमत है एहसान है क्या किसी पर । पत्थर दिल बुरा क्यो है बताओ तो जाने
क्या बात है यार बहुत बढ़िया कविता लिखी है। तुम्हारी कविता के जरिए तुम्हारी सोच पढ़कर मुझे अच्छा लगा। एक-एक बूंद सागर बनाती है। अगर तुम्हारे जैसे थोड़े से लोग होर हो जाएं समाज को बदलने की कोशिश कर सकते हैं। क्योंकि कोशिशें ही सफल होती हैं।
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