Monday, May 19, 2008

आंखें भर आती हैं

जब भी देखता हूं
बच्चों को रोते हुए
भूखों को सोते हुए
पाप को होते हुए
आंखें भर आती हैं।

जब भी देखता हूं
सच का दम घुटते हुए
अस्मिता को लुटते हुए
गिद्धों को जुटते हुए
आंखें भर आती हैं।

जब भी देखता हूं
सेक्स के व्यापार को
झूठ के प्रचार को
दरिंदगी, अत्याचार को
आंखें भर आती हैं।

जब भी देखता हूं
बिके हुए समाज को
अंधों के राज को
कल को और आज को
आंखें भर आती हैं।

3 comments:

Udan Tashtari said...

उम्दा!!

हरिमोहन सिंह said...

ऑंखे भर आती है गनीमत है एहसान है क्‍या किसी पर । पत्‍थर दिल बुरा क्‍यो है बताओ तो जाने

vijaymaudgill said...

क्या बात है यार बहुत बढ़िया कविता लिखी है। तुम्हारी कविता के जरिए तुम्हारी सोच पढ़कर मुझे अच्छा लगा। एक-एक बूंद सागर बनाती है। अगर तुम्हारे जैसे थोड़े से लोग होर हो जाएं समाज को बदलने की कोशिश कर सकते हैं। क्योंकि कोशिशें ही सफल होती हैं।

© Vikas Parihar | vikas