Thursday, September 27, 2007

अभिलाषा

दुःखों से हार कर जिए तो क्या जिए यहां।
रोने वालों को सदा रुलाता है यह जहां।
काम आगे बढना तेरा आगे को बढता तू चल।
हौसले बुलंद तेरे और इरादे हों अटल।
बिन रुके जो तू यूँ हि आगे को बढता जाएगा।
रखना धीर एक दिन तू मंज़िलों को पाएगा।
अंधेरों में दम कहां जो रोक ले तेरे कदम।
एक दीप ही बहुत है तोड़ने को तम का दम।
मुश्किलें विकट हों क्या तू भी तो एक इंसान है।
प्रकृति से जो लड़ा उस मनु की तू संतान है।
गर्जना से तेरी दहल उठता है वो आसमां।
निकल उठतीं हैं नदियां मारे तू ठोकर जहाँ।
मानवता की सेवा की राह में बढा अपने कदम।
जब भी तू यह जहाँ छोड़े सब बोलें ‘वंदे मतरम’।

1 comment:

Divine India said...

कविता का क्या कहना यह तो बेहतरीन है ही …
साथ जिस प्रकार का विषय लिया गया है वह मेरा पसंदीदा क्षेत्र है… जहाँ भी आशा की पुकार हो वहाँ निराशा आ ही नहीं सकती…॥

© Vikas Parihar | vikas