मिली थी एक रोज़ इसमें इक बूंद तेरे प्यार की।
इसलिये जीवन की सब कड़वाहटें हमने लीं पी।
बीच में सागर के भी इक घूंट पानी न मिला,
उस समय फिर प्यास अपना खून पी कर तृप्त की।
काटते थे दिन अकेले और डसतीं तन्हा रातें,
मौत से बदतर घडी हर जी मगर मर-मर के जी।
वक़्त जो इक बार निकला फिर आयेगा न लौट के,
वक़्त वो डोरी नहीं जब मन किया तब खींच ली।
यादों के झोंकों ने उडाये जब कभी इस दिल के पन्ने,
हर इक वरक पर दिखी उसे झलक तेरे नाम की।
Tuesday, September 25, 2007
एक बूंद
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