चाँद की किस तरह तमन्ना करे कोई।
दिल लगा हो बुत से तो क्या करे कोई।
न जाने कब से में यह उम्मीद ले के बैठा हूं,
कि उसके दर पर कभी मुझको फना करे कोई।
कोई तो आ के मेरे दिल की इल्तज़ा सुन ले,
मेरा हाल-ए-दिल उस को बयाँ करे कोई।
अब तो यह ज़िंदगी मेरी है मौत से बदतर,
या खुदा जिस्म से ये जाँ जुदा करे कोई।
मर गया हूं मैं मुझे अब तो कुछ सुकूं बख्शो,
जहाँ में तेरे मुझे अब याद न करे कोई।
Saturday, September 29, 2007
तमन्ना-ए-माहताब
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