Friday, September 28, 2007

उसकी हँसी*

*यह कहानी लेखन का मेरा पहला प्रयास है इसीलिये पाठकों से अनुरोध है कि इसे पढने के बाद अपने बहुमूल्य समय में से कुछ पल निकाल कर इसकी त्रुटियां एवं कमियां अवश्य बतायें जिससे मेरा मार्गदर्शन भी हो और थोड़ा प्रोत्साहन भी मिले।


“कोई है क्या?” मनीष ने बाहर से ही पूछा।
”हाँ भाई आ जाओ।” मैने हमेशा की तरह उसे अंदर बुला लिया और पूछा “कहो भाई कैसे हो? क्या चल रहा है? बहुत दिनों बाद दिखाई दे रहे हो?”
”हां भैया बस थोड़ा काम में व्यस्त था। आज ही थोड़ा फ्री हुआ हूं।” उसने इधर-उधर देखते हुये जवाब दिया।
”क्यों भाई क्य ढूंढ रहे हो?” मैने उसे ऐसे देखते हुये पूछा।
”कुछ नहीं भैया भाभी नहीं हैं क्या? कहीं दिखाई नहीं दे रहीं। दरअसल बहुत भूख लग रही है।“ उसने जवाब दिया।
”अरे चिंता क्यो करते हो उसने अब तक तुम्हारी आवाज़ सुन ली होगी और तुम्हारे भूखे पेट की पुकार भी। ज़रूर कुछ लेकर आ ही रही होगी।“ मैने मुस्कुराते हुये कहा।
”क्यों मनीष भैया आज कल तो आप एक दम ईद के चांद हो गये हैं। बहुत दिनों बाद दिखाई दिये कहां व्यस्त थे?” शीला ने नाश्ते की प्लेट मनीष के सामने रखते हुये थोड़े शरारती मिज़ाज़ में कहा।
”कुछ नहीं भाभी वो तो बस ऐसे ही” मनीष ने शर्माते हुए कहा।
”देखा पकड़ी गई न चोरी? अब जल्दी बतओ कि कौन है वो?” शीला ने उससे पूछा।
मैं अब एक दम अचंभित था और सोच रहा था कि इन औरतों की आँखों मे ऐसी कौन सा टेलिस्कोप फिट होता है जो एक आदमी के मन के अंदर तक झांक लेता है।
”ये आप किसकी बात कर रही हो भाभी? कौन वो?” उसने कुछ छिपाने के लहज़े में बोला।
पर उसके चहरे पर भाव एक दम वैसे ही थे जैसे किसी बच्चे के चहरे पर शर्माते समय होते हैं।
”अरे अब बता भी दो यार कि कौन है वो जिसके सपनों मे तुम आजकल व्यस्त हो?” मैने उन दोनो को बीच मे टोकते हुये कहा।
”अरे कुछ नहीं भैया बस उस दिन जब में एन.जी.ओ. की मीटिंग में गया था न तो वहां पर एक लड़की भी आई थी। बहुत अच्छी थी। और पता है जब वो मुस्कुराती थी तब ऐसा लगता था जैसे कि फूल खिल रहे हों और लगता जैसे सब कुछ छोड़ कर बस उसे देखे जाओ।“ ऐसा लगा जैसे वह कहीं खो गया हो।
इतने में शीला ने उसे बीच में टोकते हुये कहा “अरे बस देखता ही रहा या उससे बात-चीत भी की?”
”की न! मैने उससे कई सारे मुद्दों पर बात-चीत की।“ वह बोला।
”बस तू ज़िंदगी भर मुद्दों की ही बात करते रहना। और कोई और उससे अपने प्यार का इज़हार कर के उसे ले जाये” शीला ने उसे डाँटते हुये कहा।
”नहीं भाभी ऐसा नहीं होगा उस दिन तो पहली बार था न इसीलिये नहीं कहा अब जब भी मिलूंगा तब उसे ज़रूर बोल दूंगा” उसने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा।
वह थोड़ा रुक कर शर्माते हुये बोला “पर भाभी पता है वो जब हँसती है तब बहुत अच्छी लगती है।”
इतना बोल कर वह वहां से चला गया। अब बस मैं और शीला कमरे में बैठे थे। थोड़ी देर मे शीला भी अपना काम करने के लिये किचिन में चली गई। और मैं सोच रहा था कि कोई पराया कितनी जल्दि अपना बन जाता है। भले ही एक वर्ष बीत गया पर लगता है जैसे कल ही कि बात है, एक साढ़े पांच फुट का लड़का अपनी पीठ पर चार फुट का बैग टाँगे, जिसका बोझ सम्हालने के लिये वह लगभग तीस देग्री झुका हुआ था, और हाँथ में एक सूटकेस ले कर मकान किराये पर लेने आया था। हालाँकि चेहरे पर सफर की थकान साफ झलक रही थी पर उसकी आँखों मे सहज ही आकर्षित कर लेने वाली चमक थी और चेहरे पर थी एक मोहक मुस्कान। मैने उसे आराम से बैठाया और पानी पीने को दिया था। मैने उससे कौतूहलवश पूछा “इस बैग में क्या है?” उसने संछिप्त सा उत्तर दिया “किताबें” उसका यह जवाब सुनकर लगा जैसे वह शब्दों के मामले में बड़ा कंजूस है। मैने फिर आश्चर्य से पूछा “इतनी सारी?”
उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया “अभी तो रहने की कोई व्यवस्था नहीं थी इसीलिये जो बहुत ज़रूरी हैं वो ही लाया हूं अगली बार जब जाऊंगा तब बाकी सारी ले आऊंगा।”
उससे बातचीत के दौरान पता चला कि वह अपने घर की इकलौती संतान है। मैने सहज ही पूछा “तुम्हारे माता-पिता क्या करते हैं?” मेरे इस प्रश्न ने उसके चेहरे पर विषाद की एक गहरी रेखा खींच दी।उसने रुंधे गले से जवाब दिया “उनका छः महीने पहले एक दुर्घटना में देहांत हो गया है।“ इतना कह कर वह छत की तरफ शून्य में देखने लगा जैसे पोरों तक आये हुये आँसुओं को अपनी आँखों के आँगन में ही समेट लेना चाहता हो। उस समय मैं कुछ कहने की स्थिति में न रहा। मैने मकान की चाभी उठाई, उसे मकान दिखाया और चाभी उसको पकड़ा दी। उस दिन एक अजीब सी बेचैनी मुझे घेरे रही। रह-रह कर उस लड़के का हँसमुख चेहरा, उस पर खिंची विषाद की गहरी रेखा और आँखों की पोरों तक आये आँसू मेरी आँखों के सामने तैरते रहे। और आज वह अजनबी लड़का एक किरायेदार से बढ़ कर हमारे परिवार के एक अभिन्न हिस्से जैसा हो गया है। वह दिन था और आज का दिन है कभी मनीष को दुःखी नहीं देखा। आस-पास के लोग भी यही कहते कि यह लड़का पत्थर को भी हँसा सकता है। उसे देख कर लोग कहते कि यह कभी दुःखी हो ही नहीं सकता। परंतु मुझे लगता कि परिस्थितियों ने उसे जैसे समय से पहले ही परिपक्व बना दिया है और उसे अपने दुःखों पर हँसी का पर्दा डालने का गुर बखूबी सिखा दिया है। वक़्त इंसान का सबसे बड़ा शिक्षक होता है। कभी-कभी मैं उससे कहता कि यार तू बड़ा मस्त बंदा है दुःख तेरे आस-पास भी नहीं फटकता। तो वह भी हँसते हुये कहता “भैया ऐसा तो कोई भी नहीं जिसे दुःख या परेशानी न हो। परंतु मैने अपने सारे दुःखों और परेशानियों को हँसी के धुँऐ में उड़ा देता हूं। और वैसे भी जब मैं दूसरों की मदद करता हूं और उन्हें हंसते देखता हूं तो मेरी सारी परेशानियां और दुःख न जाने कहां गुम हो जाते हैं।
आज बहुत दिनों बाद जब मैने मनीष को छत पर बैठ कर सूर्यास्त देखते हुए देखा तो कुछ अजीब सा लगा। मैने उसके पास जाकर पूछ “क्यों महाशय पिछले एक महीने से कहां गायब थे? और आज इस ढलते सूरज कोविदा करने कैसे चले आये? और तुम्हारी मेडम के क्या हाल हैं? बात कुछ आगे बढी या नहीं?” वह बोला “कुछ नहीं भैयाबस वही काम में व्यस्त हो गया था। और आज जब आया हूं तो सोचा चलो रोज़ सुबह सूर्य देवता का स्वागत करता हूं आज विदा भी कर दूँ।“ मैने कहा “पर तुम्हारी मेडम के क्या हाल हैं? कैसी है वो?” वह थोड़ा रुक कर बोला “वह भी ठीक है। खुश है।“ मैने थोड़े संशय से पूछा “मतलब? सबकुछ ठीक-ठीक बता?” वह अपनी उसी चिर-परिचित मुस्कान के साथ बोला “कुछ नहीं भैया बस उस दिन, जब मैने आप लोगों को उसके बारे में बताया था, के बाद मैं उससे फिर मिला था मैं सोच रहा था कि मैं उसे अपने दिल की बात बता दूंगा पर मैं उसे कुछ बताता उससे पहले ही वह मुझे उस लड़के के बारे में बताने लग गई जिसे वह बहुत प्यार करती है।“ मैं उसकी यह बात सुन कर एक दम अवाक रह गया पर वह आगे कहता गया “वह बड़ी खुशी से मुझे उस लड़के के बारे में बताती जा रही थी और मैं बस उसे हंसते हुए देख रहा था। वो क्या है न भैया वो जब हंसती है तब बहुत अच्छी लगती है।“ मुझे उसकी यह बात सुन कर एक झटका सा लगा। लगा जैसे समय ने फिर इसके साथ एक खेल खेला है। मैने उससे पूछा “फिर तूने उसे कुछ नहीं कहा?”
वह भी हंसते हुये बोला “कहना क्या था वह हंसती रही और मैं उसे हँसाता रहा और मैं उसे हंसते हुए देखता रहा।“ वह आज भी हमेशा की तरह मुस्कुरा रहा था पर आज उसकी हंसी मे बनावट अलग ही दिख रही थी। मैने उससे पूछा कि “अब तू क्या करेगा?”
उसने संछिप्त सा उत्तर दिया “इंतज़ार” मैने फिर पूछा “कब तक?” और उसने फिर संछिप्त सा जवाब दिया “पता नहीं” अब मैं उससे कुछ नहीं बोला और हम दोनों ही ढलते हुये सूरज को देख रहे थे। मेरे लिये यह एक दिन और एक प्रेम कहानी का अंत था पर मनीष के चेहरे पर न जाने मुझे क्यों उसकी वही चिर-परिचित मुस्कान दिखाई दे रही थी। उसकी आँखों में एक चमक थी। शायद उसके लिये यह एक दिन और प्रेम कहानी का अंत नहीं था बल्कि उसके लिये यह थी एक नए दिन के प्रारंभ की पृष्ठभूमि।

2 comments:

Udan Tashtari said...

प्रथम प्रयास के लिहास से अच्छी है. लिखते रहो, धार अपने आप आ जायेगी. मेरी शुभकामनायें एवं पढ़ने का वादा तुम्हारे साथ है.

थीम कुछ मौलिक उठाओ तो पाठक को नयापन अपने आप बांधेगा.

वाक्य संरचना ठीक है.छोटे छोटे वाक्य ही अच्छा प्रभाव देते हैं.

संबोधनों को और थोड़ा सा बल दो. भाभी, उसके नाम के साथ भैया लगा रहीं है, अच्छा लगा पढ़कर किन्तु अगले ही वाक्य में उसे तु करके संबोधित करना खटका-इसकी जगह अगर ऐसा कहतीं कि 'भैय्या, आप भी!!' तो ज्यादा सुहाता.

बड़े भैय्या से छत पर संवाद भी रिश्तों के हिसाब से गरिमापूर्ण ही होना चाहिये, गंभीर कथा में बंदा शब्द का इस्तेमाल आदि छोटी छोटी बातों पर थोड़ा ध्यान देने की जरुरत रहती है हालांकि लिखने के प्रवाह में और छापने की जल्दी में हम सभी अक्सर इन बातों पर ध्यान नहीं दे पाते मगर देना चाहिये.

मैं खुद भी नहीं दे पाता :) मगर सुझाव देना सरल है न भाई. इसलिये दिये दे रहा हूँ.

मात्र सुझाव है. अन्यथा मत लेना.

विकास परिहार said...

सर्वप्रथमआपने मेरी इस पहली कहानी को पढ़ कर अपने सुझाव दिये उसके लिये सह्रुदय धन्यवाद। और मैं अपनी अगली रचना में अपनी इन त्रुटियों को सुधारने का पूरा प्रयास करूंगा।
साभार
विकास परिहार

© Vikas Parihar | vikas