कहीं करोङों में खेले तन।
कहीं गरीबी से रोये मन।
कहीं धूप है कहीं है छाया।
कैसी है यह प्रभु की माया।
क्यों है इतना भेद-भाव,
जबकि एक हि आंगन है।
यह भी कैसा जीवन है।
कहीं पर फ़ैशन के चलते,
वो नहीं छिपाते हैं अपना तन।
कहीं पर इतना वस्त्र नहीं,
जिससे छिप जाये उनका योवन।
ऐसे भी है लोग कि जिनके,
पेत कभी ना खाली होते।
वहीं पर हैं कई लोग जो रात को,
अपना पेत बांध कर सोते।
कहीं पर जीना है अय्याशी,
कही पर जीना उत्पीङन है।
यह भी कैसा जीवन है।
*यह कविता पंजाब राज्य के बठिंडा शहर के उस एक परिवार जैसे सैकङों परिवारों को समर्पित।
Thursday, September 13, 2007
अय्याशी और उत्पीङन*
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