Tuesday, October 2, 2007

रोमन के वकील

दे रहे हैं ज़ोर जो रोमन के उपयोग पर।
वो क्या जानें योग सदा भारी पड़ता है भोग पर।

वो हैं नादाँ जो न जानें मोल मातृभाषा का।
अंत सदा ध्वंस ही होता है अति-अभिलाषा का।
परभाषा की जो करें वकालत वह भी इतना जानें,
निजिभाषा ही है चिर उत्तर मन की तृष्णाशा का।
होते हैं प्रसन्न ये देखो अपने नए प्रयोग पर।
ये क्या जानें योग सदा भारी पड़ता है भोग पर।

जिनका स्वाभिमान नहीं होता वे ऐसा कहते हैं।
ऐसे लोग सदा जीवन की मझधारों में बहते हैं।
इसी तरह के लोग नहीं बढ़ पाते जीवन पथ में,
ये लोग जहां से चलते हैं ताउम्र वहीं रहते हैं।
समझ गई है सारी दुनिया, न समझे ये लोग पर।
ये क्या जानें योग सदा भारी पड़ता है भोग पर।

5 comments:

Udan Tashtari said...

काहे प्रचार करना उनका. अपनी मौत खुद मारे जायेंगे वो...बस, यह जागरुकता बनाये रहो.

Anonymous said...

सही कहा विकास परिहार. अपनी हिन्दी भाषा देवनागरी में ही जंचेगी, और आज जब यूनिकोड और गूगल ने भी हिन्दी सर्च, हिन्दी ब्लागिंग, और यहां तक की हिन्दी में आर्कुटिंग को संभव बना दिया है, तो फिर रोमन लिपि के दीवाने क्यों.

लेकिन दोस्त विकास तुम्हारे लेख का लक्ष्य वो व्यंग्यकार महारथी नहीं, वो लोग होने चाहिये जो हिन्दी का डंका लेटिन(रोमन) लिपि के जरिये बजाना चाहते हैं.

विरोध जारी रखना दोस्त, लेकिन देखना वो सच्चे दुश्मन के खिलाफ हो.

अनुनाद सिंह said...

"इसी तरह के लोग नहीं बड़ पाते जीवन पथ पर"

इसके बजाय सही तथ्य यह है कि ऐसे लोग अपने भाई-बन्धुओं को लत्ती मारकर उपर उठ जाते हैं। वे किसी विदेशी संस्था के हाथ में खेलते हैं, पैसे बनाते हैं। उनको पूरे देश की चिन्ता नही है। ये उनका व्यवसाय है। इसको उसी रूप में देखा जाना चाहिये। वे 'ब्रिटिश काउन्सिल' के दलाल की तरह काम करके गौरवान्वित महसूस करते हैं।

ऐसे कुत्सित प्रयासों की एक तरफ उपेक्षा होनी चाहिये और जरूरत पड़ने पर सटीक जवाब भी देना चाहिये।

Shastri JC Philip said...

"ऐसे कुत्सित प्रयासों की एक तरफ उपेक्षा होनी चाहिये और जरूरत पड़ने पर सटीक जवाब भी देना चाहिये।"

मैं इसका समर्थन करता हूं. साथ ही जो एक अज्ञात टिप्पणीकार ने लिखा है उसका विरोध भी करता हूं


विनीत

शास्त्री जे सी फिलिप

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info

ePandit said...

अच्छा लिखा आपने, आपसे पूर्ण सहमति है - हिन्दी देवनागरी में ही जँचती है।

© Vikas Parihar | vikas