एक बार जो बिछड़े कहाँ वो लोग मिलते हैं।
यह गुल तो वो गुल हैं जो पतझड़ ही में खिलते हैं।
मेरी मुहब्बत से झुक जाएगा न वो क्यूं कर,
जब डोलती है धरती तब पर्वत भी तो हिलते हैं।
जब से है यह दिल टूटा, अहसास हुआ मुश्किल,
अब आँखें भी न होतीं नम जब घाव सिलते हैं।
यह शमा क्या जाने परवाने की मुहब्बत को,
जो उससे इश्क कर कर उससे ही जलते हैं।
Tuesday, October 9, 2007
एक बार जो बिछड़े
लेखक:- विकास परिहार at 01:25
श्रेणी:- गीत एवं गज़ल
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2 comments:
वियोग पर मुझे आज भी सबसे सशक्त लगता है संत कबीर का दोहा...
पत्ता टूटा डारि से, ले गइ पवन उड़ाइ
अबके बिछुड़े कब मिलैं, दूरि पड़े हैं जाइ।
बढ़िया भाव हैं, जारी रहो.
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