Sunday, November 18, 2007

अर्चन

भरे भंवर में फंसा अकेला मन रे।
जाने कैसे तरेगा यह जीवन रे।

जीवन नैया है अब तेरे सहारे।
अब तो इसको तू ही पार लगा रे।
दीनबन्धु मैं दीन तुझे क्या भेंट करूं मैं,
तुझको तो सारा जीवन अर्पण रे।

चहूँ दिशा में दिखते मुझको भाँति-भाँति आडम्बर।
सभी जगह तेरा नाम लिखा है धरती हो या अम्बर।
भावनाएँ मेरी श्रद्धा सुमन हैं हृदय मेरा मंदिर है,
वहीं तुझे स्थापित कर करता तेरा अर्चन रे।

No comments:

© Vikas Parihar | vikas