अंधेरों में निराशा के.
किरण हो एक आशा की.
पकड़ कर डोर भाषा की.
जो हो जाते हैं स्वर मुखरित,
तो फ़िर बेदी से भावों की,
निकल पड़ती है एक गीता,
अवतरित होती है कविता
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© Vikas Parihar | vikas
1 comment:
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