(1)
रात के नीरव अन्धेरों में,
कई ख्वाब आते हैं, चले जाते हैं।
छोड़ कर अंतर्मन में
एक अजीब सा रिक्त स्थान,
फिर नहीं आती नींद भी
उनींदी आंखों मे।
रहता है इंतज़ार,
कि हो सकता है
आ जाए फिर कोई ख्वाब नया।
फिर
घंटों के इंतेज़ार से थकी आंखें
ढूंढने लगती हैं आंखों की कोरों के आंगन में,
इस उम्मीद के साथ कि
कहीं चोरी से छिपकर बैठा हो कोई ख्वाब,
किसी कोने मे।
फिर होकर मायूस सो जाती हैं ये चुपचाप,
भूखे होने पर भी न मिलने पर रोटी,
सो जाता है कोई बच्चा जैसे रो कर।
(2)
कई बार आते हैं कई ख्वाब इन आंखों में
एक दम धूल धुसरित
जैसे आय हो कोई बच्चा खेल कर
गांव धूल भरे मैदानों से।
(3)
पलकों के दरवाज़े पर दस्तक दे कर
लौट जाते हैं कई ख्वाब,
वैसे तो बच्चों की आदत होती है
दरवाज़े पर घंटी बजाकर भागने की।
(4)
ख्वाब आते हैं
मगर शरमाए से, सकुचाए से
जैसे आई हो कोई तरुणी
अपने प्रिय से प्रथम मिलन को।
और जैसे हि समझना चाहता हूं उनको,
विदाई का वक़्त हो जाता है।
(5)
कहा जाता है कि नींद में आए हुए
ख्वाब उन सभी कृत्यों का प्रतिरूप हैं,
जो नहीं कर पाता इंसान जागते हुए।
अगर ऐसा है तो खुदा करे कि,
आज नींद आये,
तो मेरा दामन छोड़कर न जाए।
(6)
कई बार मन करता है कि,
ख्वाबों के आंचल में
मुंह ढांक कर सो जाऊं
जैसे सोता था कभी बचपन में
अपनी मां के आंचल में।
पर नहीं कर सकता।
मैं बड़ा हो गया हूं।
Friday, May 16, 2008
ख्वाब
लेखक:- विकास परिहार at 01:13
श्रेणी:- नया प्रयोग
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5 comments:
बहुत उम्दा, विकास. लिखते रहो.
विकास जी,
भूखे होने पर भी न मिलने पर रोटी,
सो जाता है कोई बच्चा जैसे रो कर।
पलकों के दरवाज़े पर दस्तक दे कर
लौट जाते हैं कई ख्वाब,
वैसे तो बच्चों की आदत होती है
दरवाज़े पर घंटी बजाकर भागने की।
जैसे हि समझना चाहता हूं उनको,
विदाई का वक़्त हो जाता है।
पर नहीं कर सकता।
मैं बड़ा हो गया हूं।
वाह!!!बेहतरीन क्षणिकायें
***राजीव रंजन प्रसाद
अति सुन्दर! कल्पनायें मधुर हैं. काफी पसन्द आया.
बहुत सुंदर.
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