Sunday, March 16, 2008

हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है

रातभर कोई भौंरा मचलता है
तब जाकर फूल कोई खिलता है

तुम्हें क्या मालूम अहमियत भूख की,
एक रोटी के लिए तवा घंटों जलता है

ज़िंदगी क्या है हमसे पूछो,
जब से पैदा हुए हैं- बस चलता है

ख्वाहिशें आदमी की पहुँचने लगीं फलक तक,
हर रोज़ एक तारा कम निकलता है

मुसाफिर हूँ मैं मेरा ठिकाना न पूछ,
हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है

3 comments:

Anonymous said...

तुम्हें क्या मालूम अहमियत भूख की,
एक रोटी के लिए तवा घंटों जलता है
bahut gehri baat bahut khub

रवीन्द्र प्रभात said...

मुसाफिर हूँ मैं मेरा ठिकाना न पूछ,
हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है
अच्छा लगा पढ़कर !

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया!!सुन्दर रचना है।

मुसाफिर हूँ मैं मेरा ठिकाना न पूछ,
हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है

© Vikas Parihar | vikas