रातभर कोई भौंरा मचलता है
तब जाकर फूल कोई खिलता है
तुम्हें क्या मालूम अहमियत भूख की,
एक रोटी के लिए तवा घंटों जलता है
ज़िंदगी क्या है हमसे पूछो,
जब से पैदा हुए हैं- बस चलता है
ख्वाहिशें आदमी की पहुँचने लगीं फलक तक,
हर रोज़ एक तारा कम निकलता है
मुसाफिर हूँ मैं मेरा ठिकाना न पूछ,
हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है
Sunday, March 16, 2008
हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है
लेखक:- विकास परिहार at 02:32
श्रेणी:- गीत एवं गज़ल
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3 comments:
तुम्हें क्या मालूम अहमियत भूख की,
एक रोटी के लिए तवा घंटों जलता है
bahut gehri baat bahut khub
मुसाफिर हूँ मैं मेरा ठिकाना न पूछ,
हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है
अच्छा लगा पढ़कर !
बहुत बढिया!!सुन्दर रचना है।
मुसाफिर हूँ मैं मेरा ठिकाना न पूछ,
हर शाम मेरा ठिकाना बदलता है
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