होटल के प्रांगण में
चल रहा था जश्न
झूम रहे थे लोग
लिये डांडिया की स्टिक हांथों में,
गहरी लिपस्टिक लगे हुए होठों पर
फैली थी मुस्कान।
डस्टबिन में पड़ी हुई थीं
बहुत सारी आधी खाई हुई प्लेटें,
यही होती है समृद्धि की पहचान।
लोग खुश थे,
निश्चिंत थे।
मगर होटल के बाहर
बैठा है एक वृद्ध
इस आस मे
कि पड़ेगी किसी
समृद्ध की नज़र
इस पर
और वह
डालेगा कुछ चिल्लर
इसके कटोरे में।
जिस से वह खरीदेगा कुछ आटा
और भरेगा पेट अपनी बीवी
और तीन बच्चों का।
नहीं तो आज फिर होगा उपवास
नवरात्री के पर्व पर
माता का नाम लेकर।
Friday, October 3, 2008
नवरात्री का विरोधाभास
लेखक:- विकास परिहार at 23:13 4 टिप्पणियां
श्रेणी:- कवितायें, नया प्रयोग
Thursday, September 25, 2008
फैशन शो
हाल ही में मुझे एक फैशन शो देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ऐसा लगा जैसे जीते जी स्वर्ग में पहुंच गया हूं। पुलपिट (रेम्प) पर एक के बाद एक मेनका, रम्भा, उर्वशी आदि आदि आतीं जातीं और अपने मुख पर एक यंत्रवत मुस्कान आसपास खड़े लोगों पर बिखेर कर एवं अपने कुछ खास अंग प्रत्यंगों को एक खास तरीके से दिखा कर वापस जा रही थीं। इन सुन्दरियों के साथ आज के ज़माने के भीम और हनुमान भी आते थे और अपना शरीर शौष्ठव दिखाते थे बस अंतर इतना था कि तब के भीम और हनुमान में देशी अखाड़े की दम होती थी और आज के भीम और हनुमान में जिम की दिखावट। ये लोग बाहर से उस चमचमाती हुई बिल्डिंग की तरह दिखाई दे रहे थे जो अन्दर से एक दम खंडहर हो गई हो। और सुन्दर बालाओं के साथ आते हुए ये वीर पुरुष कम और पुराने ज़माने के हरमों और रनिवासों के रखवाले ज़्यादा लग रहे थे।
परंतु इन फैशन शोज़ की सबसे खास बात यह है कि जो काम आज तक कोई सरकार नही कर सकी वो यह फैशन शोज़ कर देते हैं और वो यह कि ये स्त्री और पुरुष दोनो को समान बना देते हैं। हमारी कई सरकारें न जाने पिछले कितने दशकों से स्त्री को पुरुष के समान दर्जा दिलाने की कोशिश कर रही है परंतु वह हमेशा असफल ही रही है। परंतु ये फैशन शोज़ एक झटके में यह कर देते हैं। मेरा देश की समस्त अस्थाई और स्थाई सरकारों को सुझाव है कि समस्त भारत वर्ष को एक रेम्प बना दिया जाये। ऐसा करने से कम से कम लैंगिक मतभेद तो समाप्त हो ही जायेंगे।
इस फैशन शो को देखने के बाद मेरे मन में न जाने क्यों आध्यात्म बोध बहुत अधिक हो गया। जहां एक ओर रेम्प की सभी लड़कियां मुझे अप्सराएं और लड़के भीम और हनुमान की पीढ़ी प्रतीत हो रहे थे वहीं दर्शकदीर्घा में खड़े सभी लड़के मुझे कृष्ण प्रतीत होने लगे। बस कालंतर में कृष्ण में कुछ बदलाव आ गये लगता था। द्वापर में कृष्ण मुरली बजाते थे आज कलयुग के ये कृष्ण सीटी बजा रहे थे। द्वापर में सभी घरों में शौचालयों की व्यवस्था नहीं होती थी तो गोपियां यमुना स्नान करती थीं और कृष्ण उनके वस्त्र चुरा लेते थे। परंतु आज सरकार ने सभी घरों मे शौचालय निर्माण अनिवार्य करा कर गोपियों का नदियों में नहाना बन्द करवा दिया तो आजकल के आधुनिक कृष्ण गोपियों के वस्त्र नहीं चुरा पा रहे। परंतु गोपियों ने उनकी इस समस्या को समझते हुए वस्त्र पहनना ही कम कर दिया तो अब वस्त्र चुराने का झंझट ही खत्म हो गया। आखिर को-ऑपरेशन से ही तो दुनिया चलती है।
इस रेम्प पर देश के भावी भविष्य को ऐसे बिल्ली की चाल (केट वॉक) चलता देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि हमारी संस्कृति किसी चूहे की भांति बैठी है और इन नौनिहालों के रूप में पाश्चात्य संस्कृति रूपी बिल्ली दबे पांव इसे चबाने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है। ऐसे फैशन शोज़ में इतने तामझाम के बाद चुने जाते हैं दो विजेता जिन्हें मिस्टर और मिस की उपाधि से नवाज़ा जाता है। जैसे बाकी सभी जो मिस या मिस्टर नहीं बन पाए वे स्त्री और पुरुष के बर्गीकरण में न आकर किन्नरों की श्रेणी में आते हैं। द्वापर में द्रोपदी का चीर हरण हुआ था और सभी गणमान्य व्यक्ति हाथ पर हाथ धरे आंखें फाड़ फाड़ कर उस दृश्य को देख रहे थे और आज सभ्यता और संस्कृति का चीर हरण हो रहा है और सभी तथाकथित गणमान्य व्यक्ति हाथ पर हाथ धरे आंखें फाड़ फाड़ कर उसे देख रहे हैं। लगा जैसे इन लोगों को नपुंसकों की श्रेणी में रख कर शायद नपुंसकों का अपमान कर रहा हूं।
लेखक:- विकास परिहार at 02:22 0 टिप्पणियां
श्रेणी:- कथायें एवं किस्से, व्यंग्य